एक कशमकश....
हैं ख़ुद ही बेघर महल बनाने वाले,
हैं ख़ुद ही बेघर महल बनाने वाले,
अजब यह
नज़ारा बार बार देखा,
ग़ुम है
बचपन भीख की कटोरी में,
यह दस्तूर
भी जग का निराला देखा,
मुस्कान
की सीमा पर क़ैद है,
आँसू सब
सपनों को क्यों अधूरा सा देखा,
ज़िंदगी
हमने क्या क्या न देखा,
हर रूप
में सब को तन्हा देखा.....
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