बुधवार, 30 मई 2012


कहता है मेरा दिल..... 

वक्त भी चलते हुए घबरा रहा है आजकल,
कौन उसके पैर को फिसला रहा है आजकल?

रास्ते आसान है पर मंज़िलें मिलती नहीं,
हर कोई पत्थर से क्यों टकरा रहा है आजकल?

न्याय का दामन पकडकर चल रही है छुरियाँ,
सत्य अपने आपमें धुँधला रहा है आजकल?

पतझडों ने नींव रिश्तों की हिला दी इस तरह,
पेड़ खुद पत्तो से यूँ कतरा रहा है आजकल?

आप ने चेहरे की खुशबू को सलामत रखिए,
एक भँवरा आप पर मंडरा रहा है आजकल?

वक्त की नादानियत या बेकरारी प्यार की,
कौन ‘चातक’ मोम को पिघला रहा है आजकल?....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें